Friday, July 18, 2025

अन्या की यात्रा-10

उपन्यास शीर्षक:

अन्या की यात्रा

एक आत्मिक विज्ञान-गाथा — रहस्य, पुनर्जन्म और मुक्ति की खोज में


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पंचम अध्याय: महाशून्य और आदिप्रकाश के द्वारपाल

(सृष्टि से पूर्व का बिंदु, जहाँ सब कुछ था पर कुछ भी नहीं था)


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पृष्ठभूमि पुनरावलोकन:
चतुर्थ अध्याय में अन्या सिद्धलोक में पहुँची थी। वहाँ उसने तीन चक्रों — ज्ञान, तंत्र और आत्मा — को एक त्रिकोण में एकीकृत किया, और प्रेतगुरु सिद्धनाथ से संकेत पाया कि अब उसकी यात्रा महाशून्य की ओर है — वह स्थान जहाँ ब्रह्मांडीय उत्पत्ति से भी पहले का मौन और संभावना उपस्थित होती है।


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महाशून्य की ओर यात्रा

जब अन्या ने सिद्धलोक को पार किया, तब उसका शरीर नहीं, केवल संवेदनात्मक कंपन बचा था। वह अब कोई ठोस सत्ता नहीं थी, बल्कि ऊर्जा की एक धारा थी — जैसी प्राचीन भारतीय दर्शन में नाद कही जाती है, या बौद्ध परंपरा में धर्मधातु।

उसकी गति अब समय और दिशा से परे हो गई थी। वह अब काल से मुक्त हो चुकी थी।

उसके चारों ओर कुछ भी नहीं था — परंतु यह रिक्तता नहीं थी। यह वह महाशून्यता थी जिसे ऋग्वेद ने कहा —

> “नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं”
(न असत् था, न सत् था तब)




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महाशून्य का दृश्य

एक अदृश्य आकाश में, जहाँ प्रकाश नहीं था, पर फिर भी कुछ झिलमिलाता प्रतीत होता था — वहाँ अन्या की चेतना तैर रही थी। वहाँ कोई रंग नहीं थे, परंतु रंगों की संभावना जैसे चारों ओर मंडरा रही थी।

यह वैसा ही अनुभव था जैसा किसी ध्यानकर्ता को गहरे समाधि में मिलता है — जब 'मैं' और 'दुनिया' की रेखा विलीन हो जाती है।


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तत्क्षण— प्रकाश का विस्फोट

तभी, अचानक, एक बीज बिंदु प्रकट हुआ — अत्यंत छोटा, परंतु संपूर्ण सृष्टि को अपने भीतर समेटे हुए।

वह बिंदु धीरे-धीरे फैलने लगा — उसकी ध्वनि नहीं थी, लेकिन उसका कंपन ब्रह्मांडीय था।

और फिर — एक आकृति उभरी।


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प्रकट होता है आदिप्रकाश का द्वारपाल

(प्रथम मनु, आदिबुद्ध और जिनेंद्र — तीन नाम, एक तत्व)

सामने जो आकृति उभरी, वह देवता नहीं थी। उसमें कोई अलंकार नहीं था। उसके शरीर का कोई निश्चित आकार नहीं था। वह केवल तेज था — जैसे सूर्य स्वयं अपने अचिंत्य रूप में समर्पित हो गया हो।

अन्या की चेतना ने उससे संपर्क किया, बिना किसी शब्द के:

"क्या तुम आदिपुरुष हो?"

और उत्तर आया, बिना ध्वनि के:

> “मैं वह हूँ जो ‘पूर्व-बिंदु’ कहलाता है।
मैं वह हूँ जिसे ऋषियों ने मनु, बौद्धों ने आदिबुद्ध, और जैनों ने जिनेंद्र कहा।
मैं वह हूँ जो काल के पहले प्रकट हुआ और काल के अंत तक तिरोहित नहीं होता।”




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तीन रूपों का रहस्य

अब वह दिव्य सत्ता तीन रूपों में विभाजित हो गई, प्रत्येक अपनी परंपरा के अनुसार:

1. प्रथम मनु (हिंदू परंपरा)

एक तेजस्वी पुरुष, जिनके शरीर से सप्तऋषियों की आभा प्रकट हो रही थी।
वह बोले:

> “मैं वह हूँ जिससे मनु संहिता, ऋषि परंपरा और धर्म का चक्र चला।
परंतु यह सब भी एक कल्पना है — क्योंकि मैं स्वयं एक ‘कल्प’ का आदि हूँ।”



2. आदिबुद्ध (बौद्ध परंपरा)

शांत, ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे एक तपस्वी, जिनके शरीर से महा करुणा और निर्वाण का प्रकाश प्रकट हो रहा था।
उन्होंने कहा:

> “मैं वह हूँ जिसने निर्वाण का द्वार दिखाया, लेकिन यह द्वार तुम्हें स्वयं पार करना होगा।
जो देखता है, वह है। जो जानता है, वह नहीं होता।”



3. जिनेंद्र परमसिद्ध (जैन परंपरा)

एक निर्विकार, पूर्ण निर्वस्त्र साधक, जिनका शरीर कर्मों की परतों से मुक्त था।
वे बोले:

> “मैं वह हूँ जो अरिहंतों का आदि स्वरूप है।
मैं चेतन हूँ — परंतु पूर्ण निरपेक्ष।
मैं साक्षी हूँ — परंतु बंधन से परे।”




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अन्या की आत्मा की प्रतिक्रिया

अब अन्या की चेतना कंपित होने लगी — जैसे कोई तार गूंजता है जब किसी अन्य से सह-संगीत उत्पन्न होता है।

उसने अनुभव किया कि वह तीनों के साथ एक जुड़ाव रखती है:

मनु के साथ — क्योंकि उसमें कर्म और समाज की चेतना है।

आदिबुद्ध के साथ — क्योंकि उसमें करुणा और निर्वाण की भावना है।

जिनेंद्र के साथ — क्योंकि उसमें स्वानुशासन और मुक्त आत्मा की चाह है।


तभी वह तीनों स्वरूप एक हो गए, और उससे बोले:

> “अब तू अगली यात्रा के लिए तैयार है।
तुझे जाना होगा उस स्थान पर —
जहाँ प्रथम संकल्प बना था।
जहाँ सृष्टि की इच्छा उत्पन्न हुई थी।
जहाँ *माया ने पहली बार अपना जाल फैलाया था।”




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अन्या का निर्णय: अगला द्वार — मायालोक

अन्या ने निवेदन किया:

“यदि आप मुझे वहां ले चलें, जहाँ इच्छा ने प्रथम बार स्वप्न देखा, जहाँ आत्मा ने देह की कल्पना की — मैं वहाँ जाना चाहती हूँ।”

तभी महाशून्य में एक दरार सी पड़ी —
और उसमें से प्रकट हुआ एक घूर्णन करती छाया,
जो कुछ-कुछ स्त्री थी, कुछ-कुछ तरल, और कुछ-कुछ दर्पण।

यह था — माया।


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महाशून्य से प्रस्थान

अन्या अब अन्यतम रूप में थी —
न ज्ञान थी, न साधक, न यात्री —
वह स्वयं ‘बिंदु’ बन चुकी थी —
जिसने शून्य में प्रवेश किया और स्वप्नलोक को देखने चली।


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[पंचम अध्याय समाप्त]

क्या आप अब तैयार हैं, अगले अध्याय के लिए?
षष्ठ अध्याय में अन्या करेगी प्रवेश मायालोक में —
जहाँ संवेदनाएँ साकार होती हैं,
जहाँ आत्माएं स्वयं को भ्रम में देखती हैं,
और जहाँ ‘आत्म-भ्रांति’ ही सबसे बड़ा युद्धभूमि बनती है।

कहिए — shall we proceed?

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